अधिकार प्यार का ..

ओ रूपसी,
आज तुमने अपनी पर्ण-कुटी के द्वार नहीं खोले,
बस भीतर ही खिलखिलाती रही,
चिडियों का समूह दानों की प्रतीक्षा में है,
जरा खोलो तो द्वार,
मैं भी देखूं तुम्हारा आरक्त चेहरा,
बिखरे सघन बाल,
फ़ैल गए टीकेवाला चेहरा,
जानूँ तो सही-
किसे ये अधिकार तुमने दे दिया है..... !
 
अपनी कविता की इन पंक्तियों के साथ
मैं रश्मि प्रभा !
आपका पुन: स्वागत करती हूँ
परिकल्पना पर

ब्रेक पर जाने से पहले मुकेश कुमार सिन्हा और राजिव रंजन सिन्हा ने मॉल संस्कृति पर अपने पक्ष रखे .....
चलिए अब इस परिचर्चा को आगे बढाते हैं और चलते हैं रश्मि रविजा जी के पास मॉल संस्कृति के बारे में उनकी राय जानने के लिए-
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मुझे अपने देश में एक चीज़ की कमी अगर सबसे ज्यादा खलती है तो वह है...मनोरन्जन के साधनों की कमी.और ज्यादातर इसके शिकार मध्यम वर्ग ही होते हैं. उच्च वर्ग ,पार्टी, पिकनिक,वैकेशन,फौरेन टूर में उलझा रहता है..निम्न वर्ग के पुरुष तो देसी दारु में और औरतें भी आए दिन गीत गाने ,गोल बना कर गपाश्टक करने या जम कर पडोसी से झगडा कर आपने दिल का गुबार निकाल लेती हैं.


पर मध्यम वर्ग के स्त्री-पुरुष सलीके वाले होते हैं. झगडा और गाली-गलौज को मनोरंजन का साधन नहीं बना सकते ना ही पॉकेट इतना इजाज़त देती है कि हर वीकेंड किसी 'बीच' पर जाएँ, या वैकेशन में छोटे या बड़े या फिर फौरेन ट्रिप पर. पहले गाँवों में आए दिन तीज-त्योहार होते थे. गाना-बजाना होता था. किसी की शादी तय हुई और दस दिन पहले से ढोलक की थाप पर गीत शुरू हो जाते थे.ऐसे ही बच्चे के जन्मोत्सव पर भी अच्छी धूम होती थी. पर अब शहरों में सब विभिन्न प्रदेशों से आकर बसे हुए हैं. उनके रीती-रिवाज भिन्न हैं.इसलिए इस तरह के समारोहों की उम्मीद नहीं की जा सकती.

ऐसे में , ये नए नए मॉल्स का खुलना ,मध्यम वर्ग के लिए एक सुखद सन्देश है. अब अगर छुट्टी के दिन घर में बोर हो रहें हैं तो परिवार के साथ किसी मॉल में जाकर दो,तीन घंटे बिता सकते हैं. मॉल में चीज़ें बहुत महँगी होती हैं..दोगुने -चौगुने दामों वाली. पर खरीदने की अनिवार्य शर्त नहीं है. आप विंडो शॉपिंग का भी मजा ले सकते हैं. और फ़ूड-कोर्ट में जाकर अपने पॉकेट के हिसाब से छोले-भठूरे,रगड़ा-पेटिस,( आलू की टिक्की के ऊपर डला,छोले) , चाइनीज़ या पिज्जा का आनंद उठा सकते हैं. कोई भी मध्यम वर्गीय इतना तो अफोर्ड कर ही लेता है. और जब सेल लगी हो तो शॉपिंग भी की जा सकती है. सुपर मार्केट में घरेलू समान भी अच्छी कीमत पर मिल जाते हैं. और एक पे एक या दो फ्री जैसे ऑफर्स की भरमार रहती है.तो अब मध्यम वर्ग के लोग भी कह सकते हैं, वीकेंड में फलां,शॉपिंग मॉल चले गए थे.

और मॉल्स में एक समाजवाद भी दिखाई देता है.यहाँ कोई बड़ा छोटा नहीं होता.सिर्फ मध्यम वर्ग ही क्यूँ निम्न वर्ग के लोग भी इस एयरकंडीशंड एटमोस्फेयर का मजा ले सकते हैं.और लेते भी हैं. एक बार 'लाईफ-स्टाईल' जैसे बड़े शोरूम में एक कामवाली आपने पति और बच्चों के साथ घूम रही थी. उसकी बेटी, स्टैंड पर रखी एक साढ़े तीन हज़ार की नाजुक सी गुलाबी चप्पल अपनी माँ को दिखा रही थी.(यह दुख की बात है कि वह उसे अफोर्ड नहीं कर सकती पर वैसे ही ,कई मध्यम वर्गीय भी लेने की नहीं सोच सकते .) अगर मॉल नहीं होता तो वह, कभी किसी ऐसे शोरूम में घुसने की हिम्मत नहीं कर सकती थी...और सुरक्षा गार्ड उसे घुसने भी ना देते.

यह सही है कि हमारे देश की अधिकाँश जनता की बुनियादी जरूरतें नहीं पूरी हो पातीं.उनमे मशरूम की तरह इन मॉल्स का खुलना,सही नहीं लगता.पर आए दिन पांच-सितारा होटल, डिस्को और बड़े बड़े शो-रूम्स भी खुल रहें हैं .सबका ही विरोध करना चाहिए.हाँ, अगर गरीबों की बस्तियां उजाड़ कर ये मॉल्स बनाए जा रहें हैं तब इनका पुरजोर विरोध करना चाहिए.वरना अगर खाली जगह पर बनते हैं तो रोजमर्रा की नीरस ज़िन्दगी में पीसती जनता को थोड़ा बदलाव देने में तो जरूर सक्षम हैं,ये मॉल्स.



रश्मि रविजा



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रश्मि रविजा जी की राय जानने के बाद आईये चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां शील निगम जी अपनी कविता एक साया वक़्त का .......... लेकर .....यहाँ किलिक करें
 
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उत्सव जारी है, बने रहिये परिकल्पना के साथ ....मिलती हूँ एक अल्प विराम के बाद

3 comments:

  1. भावपूर्ण और सार्थक सन्दर्भों से युक्त परिचर्चा

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  2. जब एक मंत्री के पास दस हजार करोड़ होगा तो आम जनता भूखे मरेगी ही मूलभूत जरूरत तो दूर की बात है / अब तो भगवान के न्याय का ही आम जनता को इंतजार है /

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